क्या लौटेंगे वे दिन

क्या लौटेंगे वे दिन 

आज जब जब मैं बच्चों एवं युवाओं  को फ़ोन, कंप्यूटर में मसरूफ देखती हूँ ,
मन ही मन उदास हो, खुद से ही कई  सवाल पूछती हूँ । 
याद करती हूँ अपना बचपन, वो हसीन पल,  जब ज़िन्दगी कितनी सरल थी ,
जब मेरे जैसे  बच्चों के जीवन में वस्तुओं, यंत्रों एवं मशीनों  की इतनी एहमीयत ना थी । 

जब रोज़ स्कूल  से आकर शाम में मैदान अथवा गलियों में ही घंटों खेलते थे, 
गर्मियों की छुटियाँ होते ही घर से बाहर रहने के मौके ढूंडते थे । 
जब एक बच्चे का  जीवन उसके दादा-दादी माता पिता एवं दोस्तों, प्रियजनों  के होने से संपूर्ण था 
उसकी हर इच्छा , ज़रूरत , उसकी हर तकलीफ को सुनने के लिए कोई न कोई मौजूद था । 

परन्तु अफ्सोस, अब समय बदल गया  है , लोग बदल गए हैं , 
इंसान की  ज़रूरतें ,प्रथमताएं भी  बदल गयी हैं । 
और आधुनिकता के इस युग में, पैसे कमाने की होड़ में, 
जीवन की सरलता मानो  कहीं खो  सी गयी है । 

आज साइबर मीडिया की  एक ऐसी भयंकर लहर आई है 
लोगों के रिश्तों में एक खोखलेपन को ले आई  है । 
फेसबुक , ट्विट्टर , इत्यादि का दुनिया में ऐसा तूफान आया है ,
एक बच्चे की मासूमियत ,भावनाओं एवं उसकी मन की  दिशाओं को ही बदल डाला है । 

घिनोना सच तो यह है कि जितना हम इस  काल्पनिक दौड़ में  निरंतर भाग  रहे हैं ,
जीवन की वास्तविकता , यथार्थ, रिश्तों के मूल्यों  से दूर होते जा रहे हैं । 
साइबर की दुनिया  में चाहे हज़ारों कि तादात में दोस्त तो बना रहे हैं ,
परन्तु सच्चे दिल के  रिश्तों एवं  दोस्तों को ही  कहीं खोते चले जा रहे हैं।

बस दिल में एक ही सवाल रोज़ गूंजता है , 
क्या लौटेंगे वो दिन 
क्या लौटेंगे वो दिन 
क्या लौटेंगे वो दिन। ................... 

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