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भारत की क़ानूनी तथा न्यायिक प्रणाली की कहानी ,(legal and judicial system) एक वकील की ज़ुबानी ……

भारत की क़ानूनी तथा न्यायिक प्रणाली की कहानी ,(legal and judicial system) एक  वकील की  ज़ुबानी …………… /or   ज़िन्दगी से बढ़कर कुछ नहीं , -  पिछले तीन वर्ष से अपने कार्यालय के विधि अधिकारी के हेतु मैंने भारत के न्यायिक तंत्र का एक दिलचस्प अनुभव किआ है, अपने लोकतंत्र देश में  कानूनी किताबों की  पढाई एवं वास्तविकता के बीच  उपस्थित द्विभाजन को भली भाँती देखा है ।  क्या कहूं मैं, कहाँ से शुरू करूँ, मन में इतनी तसवीरें , इतनी घटनाएं याद आती हैं , सोच कर कभी अत्यंत हंसी , कभी आक्रोश, और  कभी  दुःख एवं सहानुभूति  की भावना जगाती है ।  बचपन से ही अपने आस पास हो रही घटनाओं को जानने की जागरूकता, क्यूँ, क्या, कैसे, जैसे प्रश्नों का दिल में भण्डार था  , जो हो रहा है उसे मात्र स्वीकर ना करना, परन्तु मन, दिल  के विचारों को अभिव्यक्त करने  का अडिग स्वभाव था ।  शायद रही कारण रहा होगा जिस वजह  से मैं  कॉमर्स , पत्रकारिता जैसे मशहूर , सुरक्षित व्यवसायों को छोड़ने  के निर्यण पर अटल रही ,  सबके मेरे  इस निर्णय के विरुद्ध होने पर भी वकालत जैसे अद्वितीय व्यवसाय की तरफ खिची चली गयी। 

क्या लौटेंगे वे दिन

क्या लौटेंगे वे दिन  आज जब जब मैं बच्चों एवं युवाओं  को फ़ोन, कंप्यूटर में मसरूफ देखती हूँ , मन ही मन उदास हो, खुद से ही कई  सवाल पूछती हूँ ।  याद करती हूँ अपना बचपन, वो हसीन पल,  जब ज़िन्दगी कितनी सरल थी , जब मेरे जैसे  बच्चों के जीवन में वस्तुओं, यंत्रों एवं मशीनों  की इतनी एहमीयत ना थी ।  जब रोज़ स्कूल  से आकर शाम में मैदान अथवा गलियों में ही घंटों खेलते थे,  गर्मियों की छुटियाँ होते ही घर से बाहर रहने के मौके ढूंडते थे ।  जब एक बच्चे का  जीवन उसके दादा-दादी माता पिता एवं दोस्तों, प्रियजनों  के होने से संपूर्ण था  उसकी हर इच्छा , ज़रूरत , उसकी हर तकलीफ को सुनने के लिए कोई न कोई मौजूद था ।  परन्तु अफ्सोस, अब समय बदल गया  है , लोग बदल गए हैं ,  इंसान की  ज़रूरतें ,प्रथमताएं भी  बदल गयी हैं ।  और आधुनिकता के इस युग में, पैसे कमाने की होड़ में,  जीवन की सरलता मानो  कहीं खो  सी गयी है ।  आज साइबर मीडिया की  एक ऐसी भयंकर लहर आई है  लोगों के रिश्तों में एक खोखलेपन को ले आई  है ।  फेसबुक , ट्विट्टर , इत्यादि का दुनिया में ऐसा तूफान आया है , एक बच्चे की मा
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यात्रा संस्मरण - कोलकाता - खुशिओं/हर्ष     का शहर (सिटी ऑफ जॉय ) मैं पी ई सी लिमिटिड नामन    कंपनी के     विधि कक्ष में उप विधि प्रबंधक की   पद पर कार्यरत  हूँ। सन 2010 जून से इस कंपनी मे मैंने प्रबंधन प्रशिक्षु के हेतु   अपनी पहली   नौकरी की शुरुवात करी। पी ई सीलिमिटिड वाणिज्य मंत्रालय के अंतर्गत आने   वाली आयात निर्यात व्यापार से   सम्बंधित कम्पनियों में से एक है। इस सन्दर्भ में जनवरी 2011 में   विभिन्न विभागों के प्रबंधन प्रशिक्षुओं को कांडला , कोलकाता इत्यादि शहरों में भेजने का कार्यक्रम निशचित किया गया। कोलकाता के पास हल्दिया पोर्ट होने के कारण कोलकाता शहर चुना गया जहाँ पी ई सी द्वारा आयात की गयी वस्तुएं पोर्ट गोदाम में रखी    जाती हैं। साथ ही मे कोलकाता पोर्ट ,  भिन्न गोदाम इत्यादी देखने की व्यवस्था की गयी एवं सूची में समावेशकिया गया। यह सुनकर मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा क्यूंकि मैंने कोलकाता    शहर के बारे मे सुना बहुत था परन्तु  कभी देखा न था  ।  सिन्धी   होने के पश्चात भी मुझे बंगाली रीती रिवाज़ ,  मिठाइयाँ ,  यहाँ का पहनावा ,  अंग्रेजों के ज़माने की बनी संरचनाए

आखिर कब तक .........

आखिर कब तक ......... यह बिन मौसम होने वाली   बरसात , और    मौसम के बदलते मिजाज़   यह पेड़ों का यूँ गिरना एवं कटना  ,  ऊपर से यह नदियों का निरंतर   स्तर गिरना   यह सड़कों पर अनगिनत   गाड़ियों एवं अन्य वाहनों    का बढ़ता धुआं   और जगह जगह कूड़ाघर , उनपर   भिनभिनाती हुए    मक्खी   मच्छरों    का बसा डेरा   इस दूषित एवं    प्रदूषित   हवा में बढ़ते हुए    किटानुं ,  बिमारियों का घर बन रहा है   हमारा प्यारा    पर्यावरण   जिस दुनिया को भगवान् ने इतना खूबसूरत बनाया   इस मानव जाती के सुखी जीवन    के लिए फल , फूल अन्न से संसार को भर डाला   आज वही इन्सान अपने इर्द गिर्द की दुनिया की कदर करना भूल गया है   इतनी हसीं वादियों समुंद जंगलों    जीव जंतुओं को नष्ट होते चुप चाप खड़ा है   कब तक , आखिर कब तक हम मनुष्य आँखें मूंदे रहेंगे .. अपने पर्यावरण अपने संसार का यूँ विनाश होते देखते रहेंगे   अगर जल्द ही हमनें अपने पर्यावरण को न बचाया , कोई कदम न उठाया   अफ़सोस हम और  हमारी   आने वाली पीड़ियाँ ..जी ना    सकेंगे ...

मंदिरा"

मंदिरा    मैं , ८०   साल की   मंदिरा" , अकेली बेबस इस छोटे से कमरे से दुनिया को देखती हूँ , बीस साल पहले मेरी दुनिया रंगीन थी अलग थी ख़ुशी से भरी थी   जीवन मे  उमंग थी हर सुबह    जीने की एक नयी उम्मीद थी , यह वही    कमरा है , यह वह घर है जहाँ  मैंने अपनी   ज़िन्दगी के सबसे हसीं पल बिताये   इस घर में मेरा हँसता    खेलता परिवार था , मेरी ज़िन्दगी में सब कुछ था , सम्पूर्ण  थी , पर आज यह    कमरा मेरे लिए जेल के सामान है , एक काल कोठरी के समान    है वही  पलंगवही कुर्सी और  खिड़की जिससे मैं हर बदलते मौसम को देखती हूँ दिन और रात इसी बिस्तर पर बैठी  महीने और साल   गिनती रहती हूँ . एक वक़्त था जब मेरे साथ सब थे , मेरे बच्चे , मेरी दुनिया मेरे संग थे ,  और आज मेरे पास कोई नहीं , इस बूढी दादी/नानी के लिए किसी के पास दो पल नहीं   जिन बच्चों को मैंने लाड से पाला    जिनके लिए अपना सब दे डाला    आज वही    मुझ पर चिल्लाते हैं , जिन पोते पोतियों को अपने हाथ से खिलाया आज वही     मेरी बीमारी का मज़ाक उड़ाते हैं   होली हो या दिवाली शादी हो या कोई और अवसर मैं  

the edge of desire- tuhin a sinha- a must read

i just finished reading the edge of desire yesterday. i started in the afternoon as a casual read and i thought i will just read a few pages and keep it. but i was surprised that it hooked me from the very beginning. i was done with 100 pages in 1-2 hours and after a long time a book had gripped me so badly. i just took a break for eating and even missed the ipl match which i am so fond of! the edge of desire is an amazing read and the story and its characters are so beautifully written, i kept wondering how has a man expressed emotions of a woman so damn well! by far among the most thought provoking and interesting books i have read and though it suddenly ended too fast making me want for more, i still recommend everyone to read it atleast once...

A fire raging within

I am educated, I am independent,  I am the one without whom a house is not a home And yet, in this city full of dreams,  I am scared, full of fear and scared to walk alone... I  am liberal, I am a carefree student, a working professional constantly striving to follow long cherished aims and passions, And yet, in this wonderful world of humans,  I am today too conscious of chasing those very dreams.... I am everywhere, in buses, in metros, autos, taxis,  sometimes driving alone in the wee hours of the morning  or  late at night   , And yet I always feel I am not alone, someone is with me,  someone is always following me, day and night.... That someone is a cold wide open pair of eyes, of  the young and also of the old, and have become my constant companion, wherever and whenever  I go. For  they are always staring at me, eyeing on me, mocking at me and this feeling is shared by many more and not just me"...   It does not even matter h